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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 5 
शुक्राचार्य जब दैत्यराज महाराजा वृषपर्वा के दरबार में चले गये तो घर पर जयंती और देवयानी दोनों रह गईं थीं । देवयानी ने जयंती से कहा 
"माते , एक बात पूछूं" ? 
"जरूर पूछो , देव" जयंती ने उल्लास से कहा 
"माते, तात दैत्यराज के दरबार में क्यों गये हैं" ? देवयानी की आंखों में उत्सुकता थी । 
"आपके तात दैत्यों के गुरू हैं इसलिए वे दैत्यराज के दरबार में गये हैं" । जयंती ने तल्लीनता से इसका जवाब दिया । 
"मगर तात दैत्यों के गुरू क्यों है ? वे देवों के गुरू क्यों नहीं हैं" ? देवयानी की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी । 
"इसलिए कि देवों ने अपना गुरू ब्रहस्पति जी को नियुक्त कर लिया था । इससे तुम्हारे तात बहुत क्रोधित हो गये थे । उनका कहना था कि वे ब्रहस्पति जी से अधिक बुद्धिमान, ज्ञानवान, चतुर और परिश्रमी हैं इसलिए देवों के गुरू बनने की योग्यता केवल वही रखते हैं । देवों ने पक्षपात पूर्ण निर्णय लेकर ब्रहस्पति को अपना गुरू नियुक्त कर लिया है इसलिए अब उनके पास दैत्यों का गुरू बनने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग शेष नहीं रहा है । इस कारण वे दैत्यों के गुरू बन गये" । जयंती ने विस्तार से सारी बात बता दी । 
"ब्रहस्पति जी के गुरू कौन थे, माते" ? 
"तात अंगिरा ऋषि ब्रहस्पति जी के गुरू थे । ब्रहस्पति जी के वे पिता भी हैं । आपके तात शुक्राचार्य जी के पहले गुरू भी अंगिरा ऋषि ही थे" । 
"पहले गुरू ? क्या तात ने अन्य कोई गुरू और बनाया था" ? 
"हां , आपके तात और ब्रहस्पति जी दोनों अंगिरा ऋषि के शिष्य थे । आपके तात को लगता था कि वे ब्रहस्पति जी से ज्यादा श्रेष्ठ हैं किन्तु अंगिरा ऋषि अपने पुत्र ब्रहस्पति के मोह में फंसकर आपके तात के साथ भेदभाव करने लगे थे । इसी बात से कुपित होकर आपके तात ने अंगिरा ऋषि को छोड़कर एक अन्य गुरू बना लिया" । 
"दूसरे गुरू कौन थे माते" । नन्ही देवयानी प्रश्न करती चली गई । 
"महर्षि गौतम" । जयंती बड़े प्यार से समझा रही थी देवयानी को । 
"महर्षि गौतम ? वही महर्षि गौतम जिन्होंने माता अहिल्या को पाषाण होने का श्राप दिया था" ? देवयानी गौतम महर्षि का नाम लेने से क्रुद्ध नजर आई । 
"हां, वही महर्षि गौतम । पर क्या तुम उनके बारे में जानती हो" ? जयन्ती को देवयानी द्वारा महर्षि गौतम के बारे में बात करना अच्छा लगा था । इतनी कम उम्र में इतना अधिक ज्ञान होना किसी चमत्कार से कम नहीं था । जयन्ती यह जानना चाहती थी कि देवयानी महर्षि गौतम के बारे में क्या जानती है और उसकी जानकारी का स्रोत क्या है" ? 
"हां, मैं जानती हूं महर्षि गौतम को । उन्होंने पुरुष होने का दम्भ दिखाते हुए एक निर्दोष महिला जो उनकी पत्नी थी को क्रोध में आकर पाषाण बन जाने का श्राप दे दिया था । ऐसे व्यक्ति को कौन नहीं जानेगा भला ? पुरुषवादी प्रवृत्ति का इससे भयानक स्वरूप और क्या होगा ? पता नहीं ऐसे लोग इतने बड़े महर्षि कैसे बन जाते हैं, माते" ? देवयानी का चेहरा आक्रोश से भर गया था । 
"तुम्हारी जानकारी का आधार क्या है देव" ? देवयानी की ऐसी बातें सुनकर और उसके चेहरे पर आये आक्रोश को देखकर जयन्ती को बहुत चिंता हुई । 
"वो मेरी सखि शर्मिष्ठा है ना माते, वही बता रही थी एक दिन" । देवयानी निस्संकोच और उत्साहित होकर बोले चली जा रही थी । 
"वह भी तो अभी छोटी बच्ची है देव । उन्हें कैसे पता कि महर्षि गौतम ने ऐसा किया था ? हो सकता है कि उन्हें सही जानकारी ना हो । यह बात पूरी तरह सच नही है देव । माता अहिल्या दोषी थीं इसलिए महर्षि ने उन्हें श्राप दिया था" । जयन्ती ने देव की जानकारी सही करने की कोशिश की । 
"आपको सही कथा पता है माते" ? देवयानी ने जिज्ञासावश पूछा 
"हां, मुझे सही कथा पता है देव । आदि कवि महर्षि बाल्मीकि ने अपने ग्रंथ "रामायण" के बालकाण्ड में इस घटना का वर्णन किया है देव । महर्षि बाल्मीकि सबसे पुराने कवि हैं और साहित्य की शुरूआत उन्हीं से होती है । महर्षि बाल्मीकि मूल लेखक हैं और सबसे अधिक प्रतिष्ठित भी हैं । अत: हमें उनकी लिखित बातों पर विश्वास करना चाहिए" । जयन्ती देवयानी को समझाते हुए बोली । 
"यदि आपको पता हो तो सही वाली कथा बताइये न माते" । देवयानी ने अपनी मां जयन्ती से आग्रहपूर्वक कहा । 
"अच्छा, मैं सुनाती हूं" । और जयन्ती गौतम ऋषि तथा अहिल्या माता की कथा सुनाने लगीं । 

प्रजापिता ब्रह्मा जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो उन्होंने एक अतीव सुंदर कन्या भी प्रकट की । वह कन्या माता लक्ष्मी जितनी सुंदर थी । रति भी उससे ईर्ष्या करे, इतनी सुन्दर थी वह । उस कन्या का नाम अहिल्या था । उनकी सुंदरता के किस्से त्रैलोक्य में विख्यात हो गये । उनके दर्शनों के लिए सब लोग देव, दानव, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व लालायित रहने लगे । सबकी अभिलाषा थी कि बस एक बार देवि अहिल्या अपनी बड़ी बड़ी आंखों से उन्हें देख लें तो उनका जीवन सफल हो जाये । सब लोग उनकी कामना करने लगे 

उनके रूप सौन्दर्य की ख्याति संपूर्ण विश्व में फैल चुकी थी । प्रजापिता ब्रह्मा ने उनके स्वयंवर का आयोजन किया । उस स्वयंवर में सब देवताओं, ऋषियों, तपस्वियों, यक्षों, गन्धर्वों और राजाओं ने भी भाग लिया । सब अपने अपने आसनों पर बैठे थे । 

इतने में अपने हाथों में वरमाला लेकर अहिल्या उस सभा मण्डप में आईं । उनका मुख हजारों चंद्रमाओं की तरह सुशोभित हो रहा था । उनके केश घने काले और घुंघराले थे जो वायु का साथ पाकर हवा में अठखेलियां कर रहे थे । उनके दोनों नेत्र मछली सदृश आकर्षक थे । जैसे सागर में दो मत्स्य निर्भीक होकर विचरण कर रही हों । आंखों की पुतलियां काली थीं जो काले जादू की तरह लोगों को अपने वश में कर रही थी । गुलाबी डोरे मदिरा का सा नशा उंडेल रहे थे । एक जैसी दंत पंक्ति धवल धूप की तरह शोभायमान थी और दोनों होंठ अनार की तरह लाल सुर्ख थे । उनकी मुस्कान आसमान में प्रकट होने वाली तडित की तरह थी जो सबके हृदयों पर घात प्रतिघात कर रही थी । पीन पयोधर युगल सुडौल स्तन आपस में सटे हुए थे जो उनके सौन्दर्य में चार चांद लगा रहे थे । कटि प्रदेश इतना क्षीण था कि एक मुठ्ठी में ही समा सकता था । उसमें नाभि किसी नदी में पड़े हुए भंवर सदृश लग रही थी । ऐसा लग रहा था कि स्वयंवर में भाग लेने वाले सब रसिक गण उस नाभि रूपी भंवर में समा जायेंगे । 

जितनी क्षीण उसकी कमर थी उससे भी कई गुना विशाल नितम्ब उनकी चाल को मदमस्त बना रहे थे । जघन कदली स्तम्भ सी चिकनी थीं । पैरों में लाल महावर और हाथों में मेंहदी उनका रूप और निखार रही थी । गले में माणिक्यों की माला ने उनका सौन्दर्य अवर्णनीय बना दिया था । पारदर्शी परिधान उनके अंग प्रत्यंग के सौन्दर्य को परिलक्षित कर रहे थे । 

उस स्वयंवर में आपके नाना और मेरे पिता स्वयं इन्द्र देव भी माता अहिल्या से विवाह करने की अभिलाषा लेकर आये थे । अपूर्व सुंदरी अहिल्या माता ने सबको ठुकरा कर महर्षि गौतम के गले में जयमाला डाल दी । महर्षि गौतम बहुत बड़े संत, तपस्वी और दर्शन शास्त्र के ज्ञाता थे । उन्होंने "न्याय दर्शन" की रचना की थी । वे बड़े सौम्य और धैर्यवान महर्षि थे । माता अहिल्या के द्वारा महर्षि गौतम को वर के रूप में चुनने पर सब देवताओं और स्वयंवर में भाग लेने वाले लोगों को बहुत दुख हुआ । माता अहिल्या के सौन्दर्य ने सबके मनों को काम रूपी मथनी ने समुद्र मंथन की तरह मथ डाला था । वे येन केन प्रकारेण अहिल्या के सौन्दर्य का पान करना चाहते थे । 

गौतम महर्षि और माता अहिल्या जनकपुर के पास माता गंगा के किनारे एक आश्रम बनाकर रहने लगे । इन्द्र देव पर माता अहिल्या के सौन्दर्य का नशा कुछ इस तरह चढ़ा कि वह उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था" । 
"तब क्या मातामह (नाना) का विवाह मातामही (नानी) से नहीं हुआ था" ? देवयानी के प्रश्न में उत्सुकता थी । 
"तात इन्द्र देव का विवाह माता शची से हो गया था पुत्री । माता शची तो एक पतिव्रता स्त्री थी पर पिता जी वैसे चरित्रवान नहीं थे जैसे मेरी माता थीं" 
"पतिव्रता स्त्री कौन होती हैं माते" ? 
"पतिव्रता स्त्री एक ऐसी पत्नी होती है पुत्री जो सपने में भी पर पुरुष का ध्यान नहीं करती है । एक ऐसी स्त्री जो कभी किसी अन्य पुरुष की कोई कामना नहीं करे । अपने पति को ही गुरू, स्वामी और भगवान समझे । उनकी हर आज्ञा का पालन करे । ऐसी स्त्री पतिव्रता स्त्री होती है पुत्री । माता शची ऐसी ही पति परायण और पतिव्रता स्त्री हैं पुत्री । पिता इन्द्र देव को सुंदर स्त्रियां बहुत प्रिय हैं । वे सुंदर स्त्री को प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं । छल कपट का सहारा लेने में भी उन्हें कोई लज्जा नहीं आती है । 

एक दिन उन्होंने एक षड्यंत्र बनाया जिसके तहत प्रात: काल में महर्षि गौतम अपने नित्य कर्म और स्नान करने के लिए गये, पीछे से इन्द्र देव महर्षि गौतम का वेश बनाकर उनकी कुटिया में पहुंच गए । माता अहिल्या ने दरवाजे पर महर्षि गौतम को देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । चूंकि वे ब्रह्मा जी की पुत्री थीं इसलिए वे तुरंत समझ गई कि ये महर्षि गौतम नहीं अपितु इन्द्र देव हैं । उन्होंने इन्द्र देव से आने का कारण पूछा तो इन्द्र देव ने कहा 
"आप त्रैलोक्य सुंदरी हैं । आपकी ख्याति तीनों लोकों में फैली हुई है । आपका सौन्दर्य मेरे मन मस्तिष्क में समाया हुआ है । मैं कबसे आपके साथ मैथुन करने की तीव्र इच्छा लिये हुए भटक रहा हूं । आज कामदेव के बाणों ने मुझे बहुत सताया है इसलिए मैं अपने मन पर संयम नहीं रख पा रहा हूं । हे सुन्दर वक्षों वाली अहिल्या, मैं एक याचक बनकर आपके पास आया हूं । मुझे रतिदान देकर उपकृत करो । मेरी वर्षों की अतृप्त अभिलाषा की पूर्ति करो देवि । मेरे साथ समागम करके आप भी आनंद के समुद्र में डूब जाओ देवी" 

माता अहिल्या को इन्द्र की वह याचक रूपी मुद्रा बहुत अच्छी लगी । उन्होंने मन ही मन सोचा कि उनके सौन्दर्य के लिए देवराज इन्द्र भी पागल हो गए हैं और उनके द्वार पर एक याचक बनकर आये हैं । इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है कि स्वयं इन्द्र देव उनके सौन्दर्य की चौखट पर नाक रगड़ रहे हों । वे भी देवराज इन्द्र के साथ सहवास करने के लोभ पर नियंत्रण नहीं कर सकीं । पर उन्हें भय था कि कहीं महर्षि शीघ्र वापस न आ जायें । इसलिए वे बोलीं "आपने मुझे समागम के योग्य माना , मैं आपको इसके लिए आपको हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करती हूं । आपके साथ सहवास करने में मुझे भी अति प्रसन्नता का अनुभव होगा । पर मेरी आपसे एक विनती है कि आप यह कार्य अति शीघ्र कर यहां से तुरंत प्रस्थान कर जायें । यदि महर्षि आ गये तब बहुत अनर्थ हो जायेगा" अहिल्या ने अपनी आशंका प्रकट करते हुए कहा । 
"ऐसा नहीं होगा देवि । मैं अपना काम शीघ्र करके रवाना हो जाऊंगा" । तब इन्द्र देव ने दरवाजा बंद कर लिया और तफ उन दोनों ने स्वेच्छा से आनंद पूर्वक सहवास किया । इन्द्र देव द्वारा कार्य पूरा होने पर माता अहिल्या ने उनका अभिनंदन करते हुए कहा "आपका आभार प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं देवराज । आपने अपने साथ साथ मेरा मनोरथ भी सिद्ध किया है । अब महर्षि आने वाले होंगे इसलिए आप तुरंत यहां से प्रस्थान कर जायें" । अहिल्या अपने वस्त्र ठीक करने लगीं और इन्द्र देव बाहर निकल गये  

इतने में सामने महर्षि गौतम को देखकर देवराज इंद्र स्तंभित हो गये । महर्षि गौतम ने उन्हें अपना वेश धरे हुए देख लिया था । अपने तप के बल से उन्होंने समस्त घटना की जानकारी ले ली । तब उन्हें भयंकर क्रोध हुआ । महर्षि गौतम एक पत्नीव्रती थे । उन्हें सपने में भी आशा नहीं थी कि उनकी पत्नी अहिल्या उनके साथ इस प्रकार छल करेंगी । इन्द्र से तो अच्छे चरित्र की कल्पना करना व्यर्थ ही था । अत: उन्होंने इन्द्र देव को नपुंसक होने का श्राप दे दिया । इन्द्र वहां से भाग गया । 

तब उन्होंने अहिल्या से कहा "मुझे तुमसे यह आशा नहीं थी अहिल्ये । तुमने मेरे विश्वास को भंग किया है देवि । तुमने पाप किया है देवि" महर्षि गौतम बहुत क्रोध में थे । उनके क्रोध को देखकर माता अहिल्या डर गईं और मुनि के कदमों में गिर कर क्षमा याचना करने लगीं । 
"हे प्रभु ! यह अपराध मुझसे अनजाने में हुआ है । वह छद्म वेष बनाकर आया था । मैं उसे पहचान नहीं सकी थी स्वामी । मैं उसे आपको समझ कर यह कृत्य कर बैठीं । इसमें मेरा दोष नहीं है प्रभो । मुझ पर दया करो तात" अहिल्या रो रोकर मुनि के चरण पखारने लगी 
"क्या कभी ब्रह्म मुहूर्त में मैंने तुमसे 'सुरत' की याचना की है आज तक ? फिर तुमने आज कैसे स्वीकार कर लिया कि मैं ब्रह्म मुहूर्त में यह निकृष्ट कृत्य करूंगा । यह समय सूर्य भगवान के अर्ध्य देने का समय है, मेरे अग्निहोत्र का समय है । ऐसे शुभ अवसर पर मैं मैथुन के बारे में सोच भी नहीं सकता हूं देवि । आपने स्वयंवर में मेरा वरण किया था । आप यदि चाहती तो इन्द्र देव का वरण भी कर सकती थीं किन्तु आपने तब इन्द्र देव को ठुकरा दिया था । आज उनके साथ रतिदान करने की इच्छा जाग्रत होना आपके कुलटा स्त्री होने का साक्षात प्रमाण है । आपने अपने पति के साथ छल किया है देवि । मुझे इन्द्र देव के छल से उतना संताप नहीं हुआ जितना आपके कपट से हुआ है । आप तो एक पतिव्रता स्त्री थीं । आपसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी देवि । आपने घोर अपराध किया है देवि । इसका दण्ड तो आपको भोगना ही होगा" । कहते हुए महर्षि क्रोधवश कांपने लगे । 
"क्षमा स्वामी क्षमा । मैंने जानबूझकर यह कृत्य नहीं किया है स्वामी । जो कुछ हुआ वह आपको समझ कर ही हुआ है । यदि मुझे ज्ञात होता कि आपके वेष में और कोई है तो मैं उसे कदापि छूने भी नहीं देती । इसमें मेरा अपराध नहीं है स्वामी" । माता अहिल्या ने सफाई देनी चाही । 
"अनर्गल और मिथ्याभाषण ना करो देवि । क्या समागम करते समय भी तुम्हें भान नहीं हुआ कि वो मैं नहीं था ? इससे अधिक असत्य बात और क्या होगी देवि ? एक तो चोरी उस पर पर्दा डालने का कुत्सित प्रयास और भी अधिक निन्दनीय है देवि । आज से मैं आपका त्याग करता हूं और आपको श्राप देता हूं कि आप इस महापाप के कारण अदृश्य रहकर इस आश्रम में अछूत की भांति रहोगी । कोई भी व्यक्ति, पशु, पक्षी के संपर्क में तुम नहीं आओगी ।  सैकड़ों वर्षों तक धूल धूसरित होकर तपस्या करोगी तब भगवान श्रीराम के अवतार में इस आश्रम में पधारेंगे । तुम उनका आदर सम्मान करोगी । तुम्हारे आतिथ्य से प्रसन्न होकर वे तुम्हारे चरण स्पर्श करेंगे तब तुम पवित्र होकर मेरे पास आ जाओगी । तब मैं तुम्हें स्वीकार करूंगा" । 

इतना कहकर महर्षि उस आश्रम से चले गये । तब माता अहिल्या भी अदृश्य हो गईं और सब ऋषि मुनियों यहां तक कि पशु पक्षियों ने भी उनका त्याग कर दिया । वे सैकड़ों वर्षों तक अछूत की भांति इस आश्रम में रही । जब भगवान श्रीराम विश्वामित्र मुनि के साथ इस आश्रम में पधारे तब उन्होंने माता अहिल्या का आतिथ्य स्वीकार किया और उनके चरण स्पर्श किये तब जाकर देवि अहिल्या का उद्धार हुआ और वे अपने पति महर्षि गौतम के पास चली गईं । असली कथा यह है देव । ये कथा याद रहेगी ना" ? जयन्ती ने देवयानी को गोद में उठाकर कहा 
"अवश्य माते । आपकी पुत्री आप जैसी ही मेधावी है" देवयानी ने अपनी माता के गले में बांहों के हार डालते हुए कहा । 

क्रमश : 

श्री हरि 
24.4.23 

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2 Comments

Gunjan Kamal

25-Apr-2023 07:03 AM

शानदार भाग

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Hari Shanker Goyal "Hari"

25-Apr-2023 02:11 PM

🙏🙏

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